दिलीप कुमार का निधन, एक नजर शानदार फ़िल्मी सफर पर, सायरा से मिलने के लिए मुंबई से चेन्नई जाते थे
दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार साहब का आज सुबह 7:30 बजे निधन हो गया और उनके साथ बॉलीवुड के अध्याय का अंत भी हो गया।

दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार साहब का आज सुबह 7:30 बजे निधन हो गया और उनके साथ बॉलीवुड के अध्याय का अंत भी हो गया। उनके जाने से फ़िल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर छा गई है। ‘ट्रेजेडी किंग’ के नाम से जाने वाले दिलीप कुमार को फ़िल्मी दुनिया का लेजेंड माना जाता था। आइए जानते हैं उनकी जिंदगी और फ़िल्मी सफर के बारे में।
ऐसा था बचपन
11 दिसंबर 1992 को दिलीप कुमार का जन्म पाकिस्तान के पेशावर में हुआ। उनके पिता का नाम लाला गुलाम सरावर खान था और मां का नाम आयशा बेगम था और उनके 12 भाई बहन हैं। पिता फल बेचते थे। दिलीप उर्फ़ युसूफ खान ने देवलाली में स्कूलिंग की। राज कपूर दिलीप कुमार के पडोसी थे तो दोनों साथ ही बड़े हुए। बाद में दोनों ने बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाई।
साल 1940 में पिता से झगड़ा होने के बाद युसूफ खान ने अपना घर छोड़ दिया और पूणे चले गए। अच्छी अंग्रेजी बोलने के कारण उन्हें पहला काम मिला। आर्मी क्लब में उन्होंने सैंडविच का स्टॉल लगाया और जब कॉन्ट्रैक्ट खत्म हुआ तब वो 5000 कमा चुके थे। बाद में वो बॉम्बे अपने घर वापस आ गए।
ऐसे शुरू हुआ फ़िल्मी सफर
बात 1943 की है जब उनकी मुलाकात चर्चगेट पर डॉ मसानी से हुई और उन्होंने दिलीप कुमार को बॉम्बे टॉकीज में काम करने के लिए कहा। फिर उनकी मुलाकात देविका रानी से हुई जिन्होंने उन्हें 1250 रुपए की सैलरी पर नौकरी दी। यहीं उनका मिलना अशोक कुमार और सशाधर मुखर्जी से हुई और उन्होंने उन्हें नेचुरल एक्टिंग करने को कहा। शुरुआत में युसूफ खान इस कंपनी में स्टोरी लिखने और स्क्रिप्ट एडिटिंग का काम करते थे क्योंकि उनकी उर्दू भाषा पर पकड़ अच्छी थी। बाद में देविका रानी ने उन्हें नाम बदलकर दिलीप कुमार रखने को कहा और उन्हें ज्वार भाटा फ़िल्म में कास्ट किया। हालांकि ये फिल्म कुछ खास नहीं चली।
1940s
फ़िल्म ज्वार भाटा कुछ खास नहीं चली और उसके बाद भी दिलीप कुमार ने कई फ्लॉप फिल्में की। साल 1947 में जुगनू फ़िल्म रिलीज हुई जिससे उन्हें पहचान मिली और यह बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। 1948 में उन्होंने शहीद और मेला जैसी बड़ी हिट फिल्में दी। 1949 अंदाज और शबनम रिलीज हुई जिससे उनके करियर को बड़ा ब्रेक मिला और दोनों हिट रही।
ट्रेजेडी किंग नाम मिलने से हुए थे काफी परेशान
1950 में दिलीप कुमार ने बहुत सी हिट फिल्में दी जैसे की जोगन और बाबुल। 1951 में भी ये सिलसिला जारी रहा और हलचल, दीदार, तराना, दाग जैसी हिट फिल्मों में उन्होंने काम किया। 1953 में शिकस्त और 1954 में अमर, 1955 में उड़न खटोला, इंसानियत और देवदास में काम किया जो बहुत हिट रही। फिर 1957 में नया दौर, यहूदी (1958) और पैगाम (1959) की। कुछ फिल्मों में उन्होंने ऐसा रोल किया कि उनका नाम ट्रेजेडी किंग पड़ गया। जिसके बाद दिलीप साहब बहुत परेशान हुआ और मनोचिक्तिसिक की सलाह पर उन्होंने हलकी फुलकी फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। आजद और कोहिनूर जैसी फिल्मों में उन्होंने कॉमेडी रोल्स किए।
1960 में फ़िल्म Mughal-e-Azam में दिलीप कुमार ने प्रिंस सलीम का किरदार निभाया और इस फिल्म ने इतिहास रच दिया और ये उस जमाने की highest grossing फिल्म बन गई। बाद में उनकी फिल्म हाथी मेरे साथी और शोले ने इसे पीछे छोड़ा। बाद में मुग़ल-ए-आज़म को 44 साल बाद पूरी तरह कलर्ड फिल्म में रिलीज किया गया।
सात बार फिल्मफेयर अवार्ड किया अपने नाम
दिलीप कुमार ने दाग फिल्म के लिए पहला फिल्मफेयर अवार्ड जीता और इसके बाद उन्होंने सात बार लगातार यह अवार्ड अपने नाम किया। मधुबाला, व्यजंतीमाला, नर्गिस, निम्मी और कामिनी कौशाल जैसी अभिनेत्रियों के साथ उनकी जोड़ी हिट रही। 1950 में टॉप-30 सबसे ज्यादा कमाने वाली फिल्मों में उनकी नौ फिल्में शामिल थी। साथ ही वो पहले ऐसे एक्टर थे जिन्होंने अपनी फ़ीस एक लाख कर दी थी जो उस समय बहुत ज्यादा थी।
उनकी लव लाइफ
एक जमाना ऐसा था जब वो उनसे मिलने मुंबई से चेन्नई जाया करते थे। पहली बार जब सायरा को कार में दिलीप घुमाने लेकर गए तो उन्होंने उनकी मां और दादी से अनुमति ली। फिर उन्हीने शादी का प्रस्ताव रखा। 1966 में उन्होंने सायरा बानो से शादी कर ली। जिसके बाद यह जोड़ा सभी के लिए एक मिसाल बन गया। दोनों ने साथ जिंदगी के कई उतार चढ़ाव देखे और उनका डटकर सामना किया है।
सायरा ने दिलीप कुमार की तारीफ़ करते हुए बताया था कि उनका प्रेम निस्वार्थ था और उन्होंने शादी को लेकर कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया। अब दिलीप कुमार हम लोगों के बीच नहीं है लेकिन अपने अभिनय से वो हमेशा हमारे दिलों में जिन्दा रहेंगें।
– अदिति शर्मा