कहीं ये लॉक्डाउन किसी ब्रेक्डाउन में न बदल जाए

यूँ तो लाक्डाउन से निपटने के लिए कई मोर्चों पर लड़ायी लड़ी जा रही है, लेकिन एक सवाल ये भी है कि ज़िंदगी बचाने की इस मुहिम में कहीं लोग भूखों न मरने लगें। इस महामारी से बचाते- बचाते कहीं हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या भूख की महामारी की शिकार ना हो जाए। एक बहुत महत्वपूर्ण और सोचने वाली बात ये भी है कि क्या जनता सचमुच अपनी सरकारों पर विश्वास करती है? क्या जनता इस बात को मानती है कि सरकारें हर समस्या का समाधान कर देंगी। अगर हम ऐसा सोचते हैं तो शायद ये हमारी भूल है। क्यूँकि अगर ऐसा होता तो कोरोना वायरस से भय और लॉक्डाउन के बावजूद अनायास ही हमें सड़कों पर इतनी भीड़ नहीं देखने को मिलती। ऐसा नहीं है कि इन लोगों को अपनी ज़िंदगी प्यारी नहीं है। दरसल ये वो मज़दूर हैं जो रोज़ कमाते और रोज़ खाते हैं, जिनके पास काम का कोई अनुबंध नहीं है, जिनके पास जीविका का सवाल उनके जीवन की सवाल से ज़्यादा बड़ा है। शायद यही कारण है कि कोरोना से मौत का ख़तरा होने के बाद भी ये तमाम मज़दूर इकहट्ठा होकर दिल्ली से ढाई सौ और पाँच सौ किलोमीटर दूर अपने अपने गावों की ओर पैदल चल पड़े, उन गावों की ओर जहाँ हालत पहले से ही बहुत ख़राब हैं। लेकिन एक आस लिए ये लोग निकल पड़े कि कम से कम वहाँ बेमौत तो नहीं मरेंगे।
अब सवाल ये भी है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद बहुत मज़बूत है। अगर वाक़ई मज़बूत होती तो यूँ लड़खड़ा न जाती। अचानक हज़ारों, लाखों की संख्या में लोग अपनी गठरियाँ बांधे, भूखे-प्यासे, अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ सड़कों पर यूँ ही पैदल अपने घरों की ओर न निकल पड़ते। ये इस बात का परिचायक है कि जनता में में अविश्वास है अपने रोज़गार को लेकर। दरसल ये वही लोग हैं जो भारत कि अर्थव्यवस्था के ताने बाने को अप्रत्यक्ष रूप से मज़बूत बनाते हैं, देश की जीडीपी में इनका योगदान ख़ासा होता है। एक सर्वे बताता है कि वर्ष 2016 के बाद से अब तक लगभग नब्बे लाख लोग प्रत्येक वर्ष आंतरिक पलायन यानी एक शहर से दूसरे शहर की ओर पलायन करते हैं। रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने वाली ये जनसंख्या रोज़ाना कमाकर खाने और उसमें से बचत करके गावों को पैसे भेजने वाली ये जनसंख्या कहीं न कहीं देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूती देती है। ये वो लोग हैं जो बैंकों से फ़्रॉड नहीं करते, भारत का धन विदेशों में नहीं रखते बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने का काम करते हैं। लेकिन आज इन्हीं लोगों के सामने रोज़ी-रोटी का विशाल संकट है।
अब सवाल ये है कि इस समस्या से आख़िर कैसे निपटेगी सरकार, क्या कोरोना के बाद सब सामान्य हो जाएगा, क्या हमारे गाँव इतने सक्षम हैं? मुझे लगता है कि अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की ज़रूरत पड़ेगी। बेहतर होगा कि ये पुनर्निर्माण नीचे से हो। छोटे और मंझोले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। क्यूँकि चंदा देने वाली और फ़्रॉड करने वाली इन बड़ी कम्पनियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण छोटे-छोटे उद्योग हैं जो अपनी छोटी-छोटी बचतों से भारतीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाते हैं।
लेखिका शहला निगार डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ एंकर हैं