
इटली की एक लड़की और भारत का एक नौजवान आपस में एक दूसरे इश्क कर बैठते हैं। इत्तेफाक़ से इटली की वह लड़की जिस भारतीय नौजवान से मौहब्बत करती है वह एक प्रधानमंत्री का बेटा, तो आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का नाती भी होता है, लेकिन ‘राजा के घर राजा ही पैदा होता है’ रवायात को तोड़कर राजनीति में जाने और देश की सत्ता की बागडोर संभालने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी, वह तो पायलेट था, जहाज उड़ाकर जिंदगी गुजारना जाना था, लेकिन उसके देश में जन्मी नफरत की राजनीति ने पहले उससे उसका ‘नाना’ मोहनदास कर्मचंद गांधी को छीना, यहां यह बताना भी जरूरी है कि नेहरू राजीव गाँधी के नाना थे। गाँधी जी ने इंदिरा गांधी को अपनी बेटी माना था चूंकि राजीव के पिता फिरोज़ जहांगीर गांधी थे, इसलिये इन्दिरा नेहरू के नाम में शादी के बाद गांधी शब्द जुड़ गया और फिर इन्दिरा गांधी के दोनो बच्चो संजय गांधी और राजीव गांधी के नाम के साथ पिता का उपनाम ‘गांधी‘ जुड़ गया। खैर उस नौजवान के नाना यानी गांधी जी की हत्या के बाद उसकी मां को छीना, उसके बाद मजबूरन उसे राजनीति में आना पड़ा और देश की सत्ता संभालनी पड़ी, लेकिन कुछ दिनों बाद उसका भी वही अंजाम हुआ जो उसकी मां (इन्दिरा गांधी) और नाना (मोहनदास कर्मचंद गांधी) का हुआ था। नफरत की राजनीति ने उस नौजवान के चिथड़े उड़ा दिये।
जब दिल्ली के AIIMS में उसकी मां की गोलियों से छलनी लाश पड़ी थी, तब उसकी पत्नि उससे झगड़ रही थीं। क्योंकि वह महिला बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि उसके पति का अंजाम भी उसकी सास की तरह हो, और वह विधवा हो जाऐ। लेकिन वह नौजवान अपनी पत्नि को समझाते हुए कह रहा था कि पार्टी चाहती है कि ‘मैं प्रधानमंत्री पद की शपथ लूँ‘. जिस पर उसकी पत्नि उससे गुजारिश करते हुए, आंखों में आंसू लिये चीखते हुए कह रही थी कि हरगिज़ नहीं. ‘वो तुम्हें भी मार डालेंगे‘. लेकिन वह नौजवान उसे समझाने की कोशिश कर रह रहा था कि, ‘मेरे पास कोई रास्ता नहीं है. मैं वैसे भी मारा जाऊंगा, आखिरकार वे अल्फाज़ सच साबित हुए और मां की मौत के सात साल बाद 21 मई 1991 को नफरत की सियासत ने उस नौजवान के परखच्चे उड़ा दिये।
अब शुरु होती है उस लड़की की दास्तान जिसने अपनी मौहब्बत के लिये अपने वतन (इटली) को छोड़कर 1968 में एक भारतीय नौजवान से शादी की, और फिर 1984 में अपने ही आंगन में अपनी सास को गोलियों से छलनी होते हुए देखा, फिर कुछ साल बाद अपने पति की लाश का चेहरा भी नहीं देख नही पाई क्योंकि नफरत की राजनीति ने उसके ‘महबूब’ के चेहरे के भी परखच्चे उड़ा दिये थे। वह महिला सोच रही थी कि यह जो कफन में लिपटी हुई लाश है, यही तो उसकी ‘दुनिया’ है। तिरंगे का कफन ओढ़े, यह वही शख्स है जो इस देश का प्रधानमंत्री होते हुए भी ना सिर्फ उसका महबूब ही नहीं बल्कि एक अच्छा पति था। यह तो वही शख्स है जो कुछ दिन पहले जब वह प्रधानमंत्री था तो अपने सुरक्षाकर्मियों से इसलिये नाराज़ हो गया था क्योंकि ये सुरक्षाकर्मी हर वक्त साये की तरह उसके साथ रहते थे, और उसे उसकी ‘महबूबा’ के साथ अकेले घूमने भी नहीं जाने देते थे। इसलिये नाराज़ होकर उसने एक रोज़ अपने सुरक्षाकर्मियों की गाड़ियों की चाबियां छीनकर नाले में फेंक दीं थी, और खुद प्रधानमंत्री होते हुए अकेले अपनी पत्नि के साथ बरसात में भीगते हुए अपने घर पहुंचा था। ऐसे शख्स की लाश अपनी आंखों के सामने देखकर वह महिला सोच रही होगी कि मेरे लिये दुनिया, और भारत के मायने इसी एक शख्स से थे, अब जब यह शख्स ही नहीं रहा तो उसके लिये हर चीज़ बेमेल है। लेकिन शादी होने से लेकर विधवा होने तक के सफर को 23 साल बीत चुके थे और इस दौरान वह दो बच्चों की मां बन चुकी थी, और मां!… जिसके लिये मुनव्वर राना ने कहा है –
हीरे–मोती के मकानों में नहीं जाती है,
मां कभी छोड़कर बच्चों को कहां जाती है?
और वह महिला जिसकी उजड़ी हुई दुनिया उसके पति की लाश की शक्ल में उसके सामने थी, लेकिन वह अपनी ससुराल के धर्म की मान्यता के अनुसार शायद मुनव्वर राना का ही लिखा पढ़ते हुए कह रही थी–
मैं दुल्हन बनके भी आई इसी दरवाज़े से,
मेरी अर्थी भी उठेगी इसी दरवाज़े से।
वह अपनी ससुराल (भारत) की संस्कृति से भी न सिर्फ वाक़िफ हो चुकी थी, बल्कि खुद को अपने ‘ससुराल’ की संस्कृति में ढ़ाल चुकी थी। वह फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलती थी लेकिन उसकी ससुराल के लोग तो हिन्दी समझते थे इसलिये उसने संवाद करने के लिये हिन्दी सीखी, वह स्कर्ट पहनती थी, लेकिन उसकी ससुराल में महिलाऐं साड़ी पहनती हैं, तो उसने साड़ी पहनना सीखा, वह माथे पर कोई टीका, तिलक, सिंदूर नहीं लगाती थी लेकिन उसकी ससुराल में सुहागन के सर पर सिंदूर लगाया जाता है, तो उसने सुहागन रहते अपनी मांग में हमेशा सिंदूर लगाया। यह उसका त्याग है, उसका बलिदान है, और त्याग भी इतना की जब इस देश में प्रधानमंत्री पद को ठुकराने की बात आई तो उसने उसे भी त्याग कर दिखा दिया। इस देश में शायद ही कोई ऐसा नेता, या नागरिक हो जो बहुमत में होने के बावजूद प्रधानमंत्री पद पर बैठने से इनकार कर दे,लेकिन इटली से ब्याह कर लाई गई एक महिला ने यह भी करके दिखा दिया।
मगर अफसोस! नफरत की राजनीति करने वाले नफरत के सौदागरो ने त्याग की इस देवी को भी नहीं बख्शा, कभी उसे जर्सी गाय कहा, तो कभी बारबाला कहा, अब तो हद ही हो गई जब इस देश के प्रधानमंत्री ने उस महिला को कांग्रेस की विधवा कहकर उस पर तंज किया। मैं….. वसीम अकरम त्यागी यानी इस लेख का लेखक यहां से इस लेख में शिरकत कर रहा हूं, और कुछ कहने की हिमाकत कर रहा हूं, उस महिला का नाम एंटोनिया अलबीना मायनो उर्फ सोनिया गांधी है। इस महिला पर विरोधी दलों के साथ साथ अब उनके पाले हुए बौद्धिक आतंकी भी अमर्यादित टिप्पणी कर देते हैं। लेकिन इस महिला ने हमेशा ‘खानदानी‘ होने का सबूत दिया है। कल शाम जैसी टिप्पणी अर्णब गोस्वामी ने की है वह टिप्पणी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ‘चौकीदार‘ की टिप्पणी के सामने बौनी है।
प्रधानमंत्री मोदी ने जब पिछले वर्ष उन्हें कांग्रेस की विधवा कहा तो मुझे लगा कि जैसे किसी ने मुझे बेहद भद्दी गालियां दीं हैं। आखिर करता भी तो क्या करता? क्या मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क मार्ग स्थित प्रधानमंत्री आवास पर बैठकर धरना देता ? या शर्म के मारे, सर को झुकाए हुए 10 जनपथ स्थित भारत के एक शहीद परिवार के शहीद प्रधानमंत्री की विधवा के आवास के सामने एक तख्ती टांग कर बैठ जाता, जिस पर लिखा हो ‘ए शहीद की विधवा, त्याग की देवी हम शर्मिंदा हैं’? या फिर या सोचकर नज़रअंदाज़ कर देता कि जो शख्स वोटों की फसल काटने के लिये अपनी बूढ़ी मां को बैंक की क़तार में लगा सकता है वह शख्स क्या जाने की एक विधवा का दर्द क्या होता है? या मां की अज़्मत क्या होती है? फिर मुनव्वर राना की नज़्म के शेर याद आते हैं…
- सिख हैं, हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,
- ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं।
- यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी हैं,
- यहां का पानी भी हैं, पानी पर जमीं काई भी हैं।
- भाई–बहनों से किसी को कभी डर लगता है,
- सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है।
- हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,
- हर इक फूल को तितली चमन समझती है।
- हमारे दुःख को ये ख़ाके–वतन समझती है।
- मैं आबरु हूं तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,
- मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो।